भारतीय संस्कृति में विवाह को एक बहुत ही पवित्र संस्था माना गया है। यह दो लोगों के बीच एक बहुत ही पवित्र बंधन है जिसमे वे सारी ज़िन्दगी एक साथ बिताने की सहमति प्रदान करते हैं। भारत में पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) सम्बन्द्धी ऐसे बहुत से कानून हैं।
वर-वधु के विवाह संपन्न होने के बाद उसे कानूनी दर्जा अर्थात भारतीय कानून के अनुसार वैधानिक बनाने के लिए कुछ आवश्यक्ताओं को पूरा करना ज़रूरी है।
भारत में विभिन्न संस्कृतिओं के होने के कारण, यह बात ध्यान में रखते हुए की अगर कोई कानून या पॉलिसी किसी समुदाय के रीतियों को ठेस पहुँचती है तो विरोध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, निर्माताओं के लिए पंजीकरण और विवाह संपन्न सम्बन्धी एक नियम बनाना कठिन हो गया।
वर्तमान संस्कृतिओं में विवाह पंजीकरण सम्बन्धी कानून की चुनौतियों के समाधान हेतु वर्तमान में निम्नलिखित दो कानून हैं-
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, विवाह पंजीकरण के उन मामलों से सम्बंधित है जहाँ पति और पत्नी दोनों हिन्दू, बौद्ध, जैन अथवा सिख हो या फिर इन धर्मों में परिवर्तित हुए हों।
यह बात ध्यान देने योग्य है की हिन्दू विवाह अधिनियम केवल उन विवाहों की बात करता है जो संपन्न हो चुके हैं।
जबकि विशेष विवाह अधिनियम, 1954 में विवाह संपन्न और पंजीकरण से जुड़ी सारी प्रक्रिआएँ मौजूद है, जहाँ पति या पत्नी में से कोई या दोनों ही गैर-हिन्दू, बौद्ध, जैन अथवा सिख हो।
यह न्यायतंत्र की जिम्मेदारी है की वो पति और पत्नी दोनों के अधिकारों को सुनिश्चित करे। अगर किसी स्थिति में पति और पत्नी का संघ टूट जाता है तब ये निर्धारित करना चाहिए कि ये वियोजन (ब्रेक-अप) किसी दलों के कार्यों की वजह से हुआ है या नहीं।
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत, दलों (पार्टीज) के बीच विवाह को वैधानिक दर्जा दिलाने और विवाह को वैध बनाने के लिए कुछ शर्तों की पूर्ति होना ज़रूरी है। इन शर्तों को अधिनियम की धारा 5 और धारा 7 के अंदर निर्दिष्ट ( स्पेसिफाइड) किया गया है। हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 की धारा 5 के अंतर्गत किसी भी विवाह को वैध तभी माना जायेगा जब दोनों दाल हिन्दू धर्म के होंगे। अगर विवाह में एक दल ईसाई या मुसलमान हों तो यह विवाह हिंदी विवाह के अधीन वैध नहीं होगा।
एक हिन्दू आदमी जिसने अपना धर्म परिवर्तन कर ईसाई धर्म को मान लिया हो और एक ईसाई स्त्री जिसने धर्म परिवर्तन कर हिन्दू धर्म को मान लिया हो, इनके बीच विवाह वैध नहीं होगा। अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत दो हिन्दुओं के बीच विवाह सम्पन्न हो सकता है।
अगर निन्मलिखित शर्तों का अनुपालन किया जाये तब दो हिन्दुओं के बीच विवाह संपन्न हो सकता है, जैसे:
प्रतिबंधित सम्बन्ध का विस्तार- दो व्यक्तियों को प्रतिबंधित सम्बन्ध के दायरे में रखा जाता है अगर-
उपरोक्त श्रेणी ( कैटेगरीज़) के विवाह को अवैध माना जाता है।
अपवाद ( एक्सेप्शन) : यहाँ रीति-रिवाज एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसे की अगर उन दलों को शासित करने वाली कोई वैध रीति हो तब दोनों प्रतिबंधित सम्बन्ध में होते हुए भी विवाह कर सकते हैं।
दंड: प्रतिबंधित सम्बन्ध के बीच विवाह को अवैध और शुन्य ( नल) माना जाता है।
ऐसे विवाह में दलों को एक महीने का साधारण कारावास या 10000/- रुपये जुर्माना या दोनों हो सकती है।
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, धारा 7 के अंतर्गत विवाह समारोह की बात करता है। यह प्रावधान ( प्रोविज़न) बताता है कि हिन्दू विवाह किसी भी दल के रीतियों और समारोह के अनुसार संपन्न हो सकता है।
जिन रिवाज और समारोह में सप्तपदी अर्थात वर-वधु द्वारा पवित्र अग्नि के समक्ष सात फेरे लिए जाते हो, वह विवाह सातवें फेरे के साथ पूर्ण और बाध्य हो जाता है।
समारोह संस्कृतिओं और रीतिओं के अनुसार अलग अलग हो सकते हैं।
कनवाल राम बनाम हिमाचल प्रदेश प्रशासन के केस में न्यायलय ने यह घोषित किया कि एक विवाह तब तक सिद्ध नहीं होता या सिद्ध नहीं हो जाता जबतक की उस विवाह के लिए ज़रूरी समारोह को पूरा ना किया गया है।
विशेष विवाह अधिनियम विवाह की सम्पन्नता और पंजीकरण दोनों की बात करता है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 4 के अंतर्गत कुछ ऐसी शर्तें हैं जो हिन्दू विवाह अधिनियम, 1954 से मेल खाती हैं।
इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी विवाह के पुरे होने के लिए किसी भी तरह के धार्मिक समारोह की आवश्यकता नहीं है।
इस अधिनियम के अनुसार किसी भी विवाह को वैधिक बनाने के लिए, धारा 4 के अंतर्गत निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना ज़रूरी है:
ऐसा कोई विवाह जो उपरोक्त कथनों कि अवहेलना ( कॉन्ट्रॉवेन्शन) करे उसे विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत अवैध मानेंगे। हिन्दुओं, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के लोग जो इन्ही चार धर्मों के अंतर्गत विवाह करेंगे, उनके लिए ये हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अलावा एक और विकल्प है।
मुसलमान, जो एक मुसलमान के साथ विवाह करते है उनके लिए असहिंताबद्ध व्यक्तिगत कानून (अनकोडिफाइड पर्सनल लॉ) और विशेष विवाह अधिनियम के बीच चुनाव करने कि इज़ाज़त है।
यह ज़रूरी है की आप अपने विवाह के विधिवत पंजीकरण के लिए उससे जुड़ी हर जानकारी को ध्यानपूर्वक समझ लें।
विवाह के पंजीकरण हेतु उस उप प्रभागीय न्यायाधीश (सब डिविज़नल मजिस्ट्रेट) के दफ्तर में जाना होगा जिसके क्षेत्राधिकार (जूरिस्डिक्शन) में या तो विवाह हुआ या विवाह के पूर्व पति/पत्नी में से कोई वहां कम से काम 6 महीने की अवधि के लिए रहा हो।
दिल्ली सरकार की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक, हिन्दू संस्कृति में विवाह पंजीकरण के लिए राजपत्रित अधिकारी (गज़ेटेड अफसर) के साक्ष्यांकित (ड्यूली अटेस्टेड) करने के बाद निम्नलिखित दस्तावेजों को जमा करने की आवश्यकता है:
प्रक्रिया को पूरा करने के लिए, दलों द्वारा जमा किये गए दस्तावेजों की पूरी जांच के बाद, पंजीकरण के लिए एक दिन तय होता है है, जिसके बारे में दोनों दलों को बता दिया जाता है। दोनों दलों के साथ राजपत्रित अधिकारी (गैज़ेटेड अफसर) जिसने विवाह समारोह में हिस्सा लिया था, को उप प्रभागीय न्यायाधीश (सब डिविजनल मजिस्ट्रेट) के सामने प्रस्तुत होना होता है।
सारी प्रक्रियाओं के समापन के बाद, और एस.डी.एम. की सहमति से, उसी दिन प्रमाण पत्र दे दिया जाता है।
इस अधिनियम के तहत पंजीकरण की शुरुआत करने के लिए दस्तावेजों के जमा करने से पहले, दोनों दलों को 30 दिन पहले उस उप पंजीयक (सब रजिस्ट्रार) को नोटिस देना होता है जिसके क्षेत्राधिकार में पति या पत्नी में से कमसे काम कोई एक रहते थे।
दस्तावेजों के जमा करने के बाद दोनों दलों की मौजूदगी ज़रूरी है ताकि एक सार्वजनिक सूचना (पब्लिक नोटिस) जारी की जाती है जिसमे किसी भी तरह के आपत्ति के बारे में पूछा जाता है। उस नोटिस की एक प्रति को दफ्तर के नोटिस बोर्ड पर लगाया जाता है और दूसरी प्रति को दोनों दलों द्वारा दिए गए उनके पते पर पंजीकृत पोस्ट द्वारा भेज दिया जाता है।
एस.डी.एम. द्वारा किसी भी आपत्ति पर निर्णय लेने के बाद 30 दिन में पंजीकरण होता है। पंजीकरण के दिन तीन गवाहों के साथ दोनों दलों का होना ज़रूरी है।
भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो एक भारतीय और विदेशी के बीच विवाह पर रोक लगाता है।
निश्चित रूप से दोनों को विधितः मानसिक रूप से स्वस्थ और विवाह के लिए सक्षम होना चाहिए। अगर एक भारतीय और एक विदेशी भारत में विवाह करने के इच्छुक है तब विशेष विवाह अधिनियम लागु होगा।
वहीँ अगर एक भारतीय किसी दूसरे देश में विवाह करता है तब विदेशीय विवाह अधिनियम, 1969 (फॉरेन मैरिज एक्ट) लागू होगा।
इस बात से यह कहा जा सकता है कि एक भारतीय और एक गैर भारतीय के बीच विवाह एक सिविल कानून है।
ऐसे मामलों में पहले सम्बंधित दूतावास से नो इम्पीडिमेंट सर्टिफिकेट/ नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट या वैध वीज़ा की ज़रुरत होती है। बाकी सारे दस्तावेज और सारी प्रक्रिआएं विशेष विवाह अधिनियम के किसी भी सिविल मैरिज के सामान है।
बावजूद की भारत में विवाह संपन्न और पंजीकरण के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 जैसे दो विधान मुख्य रूप से हैं, लेकिन भारत में ऐसे और भी बहुत सारे कानून हैं जो अल्पसंख्यक धर्मों के विवाह के लिए बनाये गए हैं।
जैसे की, ईसाई और पारसी-
ये अल्पसंख्यक ( माइनॉरिटी) धर्म जो दोनों मुख्य विधान के अंतर्गत नहीं आते हैं, उनके साथ बराबरी का बर्ताव करना ज़रूरी है इसीलिए भारतीय विधायिका (लेजिस्लेचर) के लिए यह ज़रूरी था कि इस मामले में कानून बनाएं जाए।
भारत में ईसाई विवाह को भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 ( द इंडियन क्रिस्चियन मैरिज एक्ट, 1872) के अधीन रखा गया है, जिसमें विवाह को मंत्री या पुजारी के द्वारा संपन्न किया जाता है।
भारतीय ईसाई अधिनियम, 1872 के अनुसार सभी ईसाई विवाह इस अधिनियम के तहत संपन्न किये जाने चाहिए। धारा 4 के अनुसार ईसाई-ईसाई विवाह के अतिरिक्त ईसाई और गैर-ईसाई विवाह को भी इसी अधिनियम के तहत संपन्न किया जायेगा।
एक मामले की सुनवाई में कर्नाटक उच्च न्यायलय ने कहा कि “ईसाई विवाह- अगर उनमें से कोई एक व्यक्ति भी हिन्दू हो तब भी विवाह को हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तलाक डिक्री के अनुसार ख़त्म नहीं किया जा सकता है”
दिलचस्प बात यह है की उसी उच्च न्यायलय के दो न्यायाधीशों की खंडपीठ (डिवीज़न बेंच) ने 1995 में यह कहा कि
“ईसाई विवाह अधिनियम के अंतर्गत किये गये विवाह और विशेष विवाह अधिनियम में वैध रूप से पंजीकृत विवाह को विशेष विवाह अधिनियम की धारा 28 के अंतर्गत आपसी सहमति के साथ ख़त्म किया जा सकता है, अगर धारा में लिखित सभी शर्तों का पूर्णतया पालन किया जाये”।
यह सामान्य शर्तें दूसरे सभी विवाह के लिए सामान हैं अर्थात विवाह को दोनों दलों की स्वतंत्र सहमति के साथ होना चाहिए, वर और वधु की उम्र क्रमसः 18 और 21 होनी चाहिए और किसी भी दल का पति/पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए।
इस सभी के अलावा, इस अधिनियम के तहत निन्मलिखित प्रावधानों को मानना ज़रूरी है:
अगर दोनों दल एक ही जगह रहते हैं, तब उनमें से एक दल को धार्मिक मामलों के मंत्री (मिनिस्टर ऑफ़ रिलिजन) को नोटिस देकर विवाह की अपनी इच्छा को बताना होगा। अगर दोनों दल अलग अलग रहते हैं, दोनों दल को अलग अलग लिखित नोटिस अपने क्षेत्र के विवाह पंजीयक (मैरिज रजिस्ट्रार) को देना होगा।
नोटिस में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां होती हैं जैसे कि-
एक ईसाई विवाह का प्रदर्शन उन रीतियों के अनुसार दोनों पक्षों के बीच होती है जिसे प्रदर्शन कर रहे मंत्री या पादरी के अनुसार ज़रूरी माना जाता है। विवाह रीतियों के अनुसार ये ज़रूरी है कि मंत्री या पादरी के अलावा भी दो गवाहों की उपस्थिति हो।
अगर प्रमाण पत्र के जारी होने के दो महीने के भीतर विवाह नहीं होता, तब दो महीने कि समाप्ति के बाद विवाह नहीं किया जा सकता है और ऐसा करने के लिए नए सिरे से प्रमाण पत्र के लिए नोटिस देना होगा।
भारतीय ईसाई अधिनियम के भाग IV में विवाह पंजीकरण की बात कि गयी है। पक्षों को उस क्षेत्राधिकार के सम्बंधित अधिकारी से विवाह पंजीकरण के लिए एक आवेदन बनाने की ज़रुरत होती है जहाँ दोनों पक्षों में से कोई एक रह रहा हो। विवाह पंजीयक वह पंजीयक होता है जिसकी उपस्थिति में विवाह होता है और वही पंजीकरण करता है।
पंजीकरण की स्वीकृति पर्ची पर विवाह के दोनों पक्ष हश्ताक्षर करते है और इसे विवाह के प्रमाण के तौर पर पंजिका (रजिस्टर) में लगा दिया जाता है। इस स्वीकृति पर्ची को हर महीने के अंत में जन्म, मृत्यु और विवाह के रजिस्ट्रार जनरल को भेजा जाता है।
भारतीय ईसाई विवाह को विशेष प्रावधान के अंतर्गत बिना पूर्व नोटिस के भी संपन्न किया जा सकता है।
पारसी विवाह अधिनियम (द पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट, 1936) के तहत विवाह का पंजीकरण उस जिला पंजीयक के दफ्तर में करवाया जा सकता है जिसके क्षेत्राधिकार में विवाह संपन्न हुआ हो। इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 4 में कुछ शर्तें दी गयी है जिसके तहत कुछ विवाह को गैरकानूनी माना जाता है।
“कोई भी पारसी (बावजूद की उसने अपना धर्म और अधिवास (डोमोसाइल) बदला है या नहीं) इस अधिनियम या कोई भी कानून के तहत अपने पति/पत्नी के जीवनकाल में ही किसी भी विवाह का संविदा नहीं बना सकता है, भले वो पारसी हो या न हो, सिवाय इस बात के की उसने अपने पति/पत्नी से कानूनन तरीके से तलाक ले लिया हो या उसके अपनी पति/पत्नी के साथ का विवाह विधितः अवैध और शून्य हो गया हो और अगर वह विवाह की संविदा अगर ऐसे ही पति/पत्नी के साथ पारसी विवाह और तलाक अधिनियम,1865 या इस अधिनियम के तहत बनायीं गयी हो, सिवाय की उसने तलाक ले लिया है, उसकी घोषणा और उसे खत्म उस अधिनियम के अनुसार ही किया जायेगा।
इस प्रावधान के विरुद्ध किया गया और कोई भी विवाह अवैध माना जायेगा।
इस अधिनियम के अनुसार:
भारत में विवाह पंजीयन सम्बंधित कानून में बहुत बदलाव आएं हैं।
समय के साथ, कानून को लागू करने में हिन्दू विवाह के अंतर्गत दूसरी पत्नी के अधिकार को लेकर बहुत प्रकार की दिक्कतें भी आयी। हिन्दू कानून या इससे सम्बंधित दिशा निर्देशों में द्विविवाह की प्रथा (बायगेमी) को लेकर कोई विधितः स्थान न होने की वजह से औरतों की स्थिति बहुत ही दबाव में और तनावपूर्ण हो गयी।
जब दोनों पत्नियों को लगे कि उनके साथ पति द्वारा धोखा धड़ी हुआ है –
ऐसी अवस्था में, यह जानना बहुत ज़रूरी है कि हिन्दू विधि में पति/पत्नी के रहते दूसरा विवाह गैरकानूनी है। लेकिन ये भी देखा जाना चाहिए कि ऐसे सम्बन्ध दूसरी पत्नी को एक पीड़िता के रूप में दर्शाते हैं जिसे अपने पति के कारनामों की जानकारी नहीं थी जिसके कारणवश उसे भुगतना पड़ रहा है।
इतिहास की बात करें तो यह एक नियम था कि पहली पत्नी बाकि सारी पत्नियों में प्रधान रहती थी और उसके पहले बेटे बाकि सारे सौतेले भाइयों में प्रधान रहता था। यह भी हो सकता था कि पहली पत्नी के अलावा बाकि सारी पत्नियां रखैल मानी जाती थी। उसके बाद ब्रिटिश इंडिया के न्यायालयों में यह एक नियम था कि एक हिन्दू पुरुष अपनी पिचि पिछली विवाह के रहते हुए भी बिना पहली पत्नी के सहमति और उसे बताये दूसरी शादी कर सकता है।
रघवीर कुमार बनाम षण्मुखा वदिवार के मामले में कहा गया कि एक रीति जो कि उदुमालपेट तलूक के नाडार में प्रचलित है और जिसमें दूसरा विवाह करना मना है, उसे अगर स्थापित भी कर दिया जाये तब भी उसे कानूनन लागू नहीं किया जा सकता।
हाल ही में, बॉम्बे उच्च न्यायलय ने हिन्दू कानून के अंतर्गत दूसरी पत्नी के सेवानिवृत्ति के फायदे से जुड़ा एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया और कहा की उसे अपने मृत पति के सेवानिवृत्ति से जुड़े फायदे मांगने का पूर्ण अधिकार है।
सर्वोच्च न्यायलय ने 2010 में यह पाया की अगर एक महिला एक शादीशुदा पुरुष के साथ विवाह करती है, तब वो किसी भी तरह के गुज़ारा भत्ता (मेंटेनेंस) और अन्य तरह के सुरक्षा फायदों की अधिकारी नहीं होगी।
2011 के सेन्सस डाटा के मुताबिक भारत में पुरुषों की तुलना में 6.6 अरब विवाहित महिलाएं ज्यादा हैं।
बादशाह बनाम सोउ उर्मिला बादशाह गोडसे के मामले में न्यायलय का यह बयान था कि अगर एक महिला जो अपनी पति के विवाह की बात से अज्ञात थी उसे अपने पति से दंड प्रक्रिया संहिता ( क्रिमिनल प्रोसीज़र कोड) की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता मांगने का पूर्ण अधिकार है।
इसलिए ऐसा कहा जा सकता है की, न्यायतंत्र ने महिलाओं का एक अलग समूह बनाया है जिनका विवाह धोखे से एक शादीशुदा पुरुष के साथ हो गया हो, इसमें वे औरतें शामिल नहीं है जिन्होंने अपनी मर्ज़ी से विवाह किया हो।
घरेलु हिंसा अधिनियम के तहत निरर्पेक्ष रूप से, कि वह पहली पत्नी है या दूसरी, सभी तरह की महिलाओं की सुरक्षा यह बताती है कि “घरेलु सम्बन्ध” की सारी महिलाएं गुज़ारे भत्ते की मांग कर सकती हैं।
पति-पत्नी के बीच तथ्य को सिद्ध करने के लिए, ताकि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत गुज़ारे भत्ते की मांग कर सके, वोटर पहचान पत्र पर भरोसा किया जाता है जहाँ उसे पत्नी सम्बोधित किया गया है या फिर संयुक्त बैंक खाता (जॉइंट बैंक अकाउंट) या फिर पुलिस की शिकायत अर्जी जहाँ उसने बताया हो की वह उसकी पत्नी है, इनसब को यह साबित करने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है कि वह उसकी पत्नी है और समाज में उसे उस पुरुष की पत्नी का मान मिलता था।
1991 के एक मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायलय ने दूसरी पत्नी जो गैर-कानूनी विवाह के दौरान बच्चे को जन्म देती है उसे लेकर निम्नलिखित बयान दिया था:
मद्रास उच्च न्यायलय ने हाल ही में बोला कि दूसरी पत्नी को पेंशन लेने का कानूनन अधिकार है। न्यायालय ने यह कहा कि अगर जोड़े ने विधितः शादी नहीं कि है फिर भी वे 1976 से साथ रह रहे थे।
यह पत्नी को कानूनन अधिकार देता है और न्यायालय ने पति कि मृत्यु के तारीख से ही 12 सप्ताह के भीतर पेंशन देने के लिए निर्देश दिए। उसने प्राधिकारियों (अथॉरिटीज) को भी दूसरी पत्नी को मासिक पेंशन देने के निर्देश दिए।
पत्नी के पास अपने हर स्त्रीधन अर्थात जो भी पैसे और उपहार उसे विवाह के पहले या बाद में मिलते हैं, उसका मालिकाना हक़ होता है।
अगर एक स्त्री का स्त्रीधन उसके पति या ससुरालवालों के पास हो, तब भी उसका मालिकाना हक़ पत्नी के पास ही होता है। उच्च न्यायालय का कहना है कि पति से अलगाव के बाद भी पत्नी को वह स्त्रीधन मांगने का पूर्ण अधिकार है।
पत्नी के पास अपने ससुराल में रहने का पूर्ण अधिकार है, जहाँ उसका पति रहता है, भले वह घर एक पुश्तैनी घर हो, संयुक्त परिवार हो, खुद का लिया हुआ घर हो या किराये का घर हो।
श्रीमती बी पी अचला आनंद के मामले में उच्च न्यायालय ने यह पाया कि व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉज़) के अनुसार भी पत्नी को अपने ससुराल में रहने का पूर्ण अधिकार है।
आगे यह देखा गया कि:
“एक पत्नी को पति से गुज़ारे भत्ते का पूर्ण अधिकार है। उसे उसके घर में रहने और हर सुरक्षा का अधिकार है। उसे अपने निवास स्थान को अलग करने का भी अधिकार है अगर पति के हरकतो या उसके द्वारा गुज़ारे भत्ते के लिए मना करने से या किसी भी कारन से उसे अलग रहने के लिए मजबूर होना पडा हो।”
निवास का अधिकार पत्नी को मिलने वाले गुज़ारे भत्ते का ही हिस्सा है। गुज़ारे भत्ते के प्रयोजन के लिए पत्नी कि जगह तलाकशुदा पत्नी शब्द का उपयोग किया जाता है।
ये सारे अधिकार और गुज़ारे भत्ते की मांग केवल पति के खिलाफ होती है।
ऐसे मामले जहा एक पत्नी पैसे कमाने में असमर्थ हो या फिर उसके पास कमाई का कोई जरिया न हो तब वह पति से आर्थिक सहायता की अधिकारी है।
अगर माता-पिता दोनों ही कमाने में असमर्थ हो, ऐसी स्थिति में वे दादा-दादी या नाना-नानी से आर्थिक मदद लेने के लिए आज़ाद है। एक नाबालिग बच्चे को पुश्तैनी घर में बंटवारे का भी अधिकार होता है।
अगर विवाह जम्मू और कश्मीर में संपन्न हुआ हो, तब दोनों पक्ष जो विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह कर रहे है, जो की ज्यादातर अंतर्जातीय विवाह के मामलों में होता है, उन्हें उस जगह का भारतीय निवासी माना जाता है जहां तक विशेष विवाह अधिनियम लागू होता है।
विवाह पंजीयक अधिकारी उस विवाह के नोटिस की प्रति को अपने दफ्तर के किसी सुस्पष्ट जगह रख कर सबको दिखाने के लिए बाध्य है।
ऐसे मामले जहाँ विवाह पंजीयक अधिकारी ने दो पक्षों के बीच के विवाह के लिए नकार दिया हो, तब तीस दिनों के भीतर कोई भी पक्ष जिला न्यायलय में अपील दर्ज करवा सकते हैं- वहीँ जहाँ विवाह पंजीयक अफसर का क्षेत्राधिकार है।
विवाह से जुड़े जिला न्यायलय का फैसला अंतिम और बाध्य होगा।
ऐसे मामलों में विवाह, हिन्दू संस्कृति के पुरे रीति-रिवाज़ और विधानों से संपन्न होगा।
साफ़ शब्दों में, मंदिर विवाह में पूर्ण भारतीय संस्कृति से विवाह होगा। लेकिन विधितः उसको साबित करने के लिए एक प्रमाण पत्र की आवश्यकता होगी, जो की विवाह पंजीयन के दफ्तर में पुजारी के अलावा सभी विवाह की तस्वीरों और गवाहों के बयान सुनने के बाद मिलती है।
विवाह के दोनों पक्ष अगर हिन्दू हैं (या हिंदुत्व में परिवर्तित हुए हों) वे आर्य समाज मंदिर में भी विवाह कर सकते हैं।
विवाह को आर्य समाज के मंदिर में, उम्र और सहमति के जुड़े ज़रूरी दस्तावजों के देखने के बाद हिन्दू रीति रिवाजों और धार्मिक तरीके से किया जाता है।
अगर विवाह आर्य समाज प्राधिकारियों द्वारा हुआ हो तब भी पक्षों को पंजीकार से विवाह पंजीकृत करवाना होता है जो तस्वीरों और दस्तावेजों और विवाह के गवाहों को देखने के बाद प्रमाण पत्र जारी करता है।
भारत में आर्य समाज विवाह प्रमाण पत्र एक कानूनी दस्तावेज है।
आर्य समाज विधिमान्यकरन अधिनियम, 1937 (आर्य मैरिज वेलिडेशन एक्ट, 1937) के तहत आर्य समाज एक वैध विवाह है।
हाल फिलहाल में ऐसे मामले आएं हैं जहा आर्य समाज में प्राधिकारियों द्वारा विवाह हुआ लेकिन प्रमाण पत्र के विवरण में गलतियां थी।
ऐसे मामलों में, विवाहित जोड़े उन गलतियों में सुधार के लिए उनको बोल सकते हैं, लेकिन जैसे की ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि वे ऐसा करने से माना करते हैं या पैसों कि मांग करते हैं –
ऐसे स्थिति में सबसे पहले गलती में सुधर के लिए आर्य समाज को सम्बोधित करते हुए एक पत्र लिखना होता है। अगर आर्य समाज प्राधिकारियों द्वारा भी कोई कदम नहीं उठाया जाता है, तब उस नगर के आर्य समाज के मुखिया को एक लिखित शिकायत दर्ज किया जा सकता है।
आजकल, गैर प्रवासीय भारतीय (नॉन रेसिडेंट इंडियन) से विवाह और उनकी वजह से आने वाली दिक्कतों के मामले में बहुत बढ़ोतरी आ रही है। अधितकर महिलाएं ही ऐसे विवाह में पीड़िता होती हैं। निम्नलिखित कुछ परेशानियां है जो महिलाओं द्वारा झेले जाते है एक गैर प्रवासीय से विवाह के बाद-
ये विवाह के लिए एक काफी गंभीर समस्या है। सबसे पहली सावधानी उस दल को रखनी चाहिए जो एक एन आर आई से विवाह करते हैं।
3. महिला और उसके परिवार को पति से जुड़े निम्नलिखित दस्तावेजों की जांच करनी चाहिए और उसकी एक प्रति अपने पास रखनी चाहिए:
महिला का परिवार अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और संपर्कों की मदद से उपरोक्त मामले की जांच-पड़ताल और प्रमाण करवा सकते हैं लेकिन अगर उन्हें अपने परिवार और दोस्तों के संपर्क से कोई जानकारी नहीं मिलती है, तब वे उसके विवरण (डिटेल्स)/पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड) की जानकारी के लिए देश के किसी नजदीकी भारतीय संगठन/गैर-सरकारी संगठन इत्यादि से संपर्क कर सकता है जहाँ एन आर आई/पी आई ओ मगेतर रहता हो।
ऐसे मामले जिसमे पति विदेश जाने के बाद अपनी पत्नी के साथ बुरा व्यवहार करता है तब वो भारतीय दूतावास/वाणिज्य दूतावास में सहायता/सलाह, नजदीकी पुलिस के साथ उत्पीड़न, छोड़ने, बुरे व्यहवार के शिकायत के लिए जा सकती है।
दूतावास/वाणिज्य दूतावास, नजदीकी गैर-सरकारी संगठन (एन जी ओ) का पता देने, नजदीकी पुलिस से मिलने, परिवार/दोस्तों से संपर्क करने इत्यादि, में सहायता कर सकती है।
शुरुवाती कानूनी/ आर्थिक सहायता से लेकर विदेश में पति के खिलाफ केस दर्ज कराने तक के लिए भारतीय मिशन में संपर्क किया जा सकता है।
अगर एन आर आई पति ने औरत को भारत में छोड़ा है तब वो तुरंत नजदीकी पुलिस थाना में पुलिस के साथ क्रूरता के आधार पर भारतीय दंड संहिता के धारा 498A के अंतर्गत शिकायत/एफ आई आर दर्ज करा सकती है।
भारत के बाहर किये गए गुनाहों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 188 के अंतर्गत माना जाता है कि वे भारत में किये गए हों। इसलिए एक आहत महिला भारत में शिकायत दर्ज करवा सकती है।
वर्ष 2012 में भारतीय संसद ने एक कानून पास किया जिसमे सिख समुदाय को यह अनुमति दी गयी की वे अपने विवाह का पंजीकरण आनंद विवाह (संसोधन) अधिनियम, 2012 (द आनंद मैरिज (अमेंडमेंट) बिल, 2012) के तहत करवा सकते हैं। बावजूद की आनंद विवाह अधिनियम 1909 (द आनंद मैरिज एक्ट, 1909) में पारित की गयी थी लेकिन अभी तक कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिसके तहत हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत हुए पंजीकरण को इसमें पंजीकृत करवाया जा सके। अकसर विवाह के लिए गुरुद्वारा को ही चुना जाता है।
मान्यता प्राप्त गुरुद्वारों में कड़े नियम लागू हैं जिसके तहत दोनों दलों से जो की सिख हों, विवाह से पहले एक नोटराइज़्ड हलफनामा (एफिडेविट) लिया जाता है, यहाँ तक ही यह भी इच्छा ज़ाहिर की जाती है की दोनों तरफ के माता-पिता सिख विवाह समारोह में उपस्थित रहे जिसे आनंद कराज भी कहा जाता है, बहुत शर्तें होती हैं जिसे मन्ना होता है।
यह है भारत में विवाह पंजीकरण से जुड़ी इतनी सारी जानकारियां। क्या आपको यह पोस्ट पसंद आया? कृपया नीचे कमेंट करें और शेयर करना न भूलें।